भाग्य की विडंबना: एक मां की भावुक कहानी | A Mother’s Emotional Story in Hindi

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भाग्य की विडंबना: एक मां की भावुक कहानी | A Mother's Emotional Story in Hindi
भाग्य की विडंबना: एक मां की भावुक कहानी | A Mother’s Emotional Story in Hindi

भाग्य की विडंबना: एक मां की भावुक कहानी

कहानिया यूं तो आसमान से उतरकर नहीं आती है. यह हमारे समाज की सच्चाई का आईना है. मैं एक ऐसी ही मां ‘कविता’ के बारे में, जो कभी अपने बीते वक्त में महलों में रहने वाली किसी महारानी से कम नहीं थी,  की कहानी बता रही हूं. ईश्वर ने कविता को सब कुछ दिया था. अच्छा पति,पुत्र और पुत्री,दोनों सुशील और आज्ञाकारी थे. माता-पिता ने अपने पुत्र और पुत्री को अच्छी तरह से पढ़ाया-लिखाया. फलस्वरुप रिटायर होने के बाद, बड़ी मुश्किल से 100 गज के प्लाट पर दो मंजिल बनाकर, गले तक कर्ज में डूब गए. चिंता में बीमार रहने लग गए, एक दिन ऐसा सोए कि दोबारा उठे ही नहीं. गलीमत यह थी कि, प्रियंका पुत्री का विवाह करने के बाद, पुत्र नितिन की सगाई कर चुके थे. वरना मां कविता क्या बिना पैसे के यह सब कर पाती. नितिन की कमाई से घर का खर्च चलता था.

धीरे-धीरे उन्नति करता हुआ नितिन, एक मल्टीनेशनल कंपनी का मैनेजर बन गया. इधर शादी की तैयारी चल रही थी. उधर रकम मांगने वाले, हर दूसरे दिन दरवाजे पर मुंह बाए खड़े हो जाते थे. नितिन ने एक दिन बोला कि मेरा दो कमरों के घर में दम घुटता है. नितिन बोला- यह मकान बेचकर बड़ा मकान ले लेना चाहिए. यह बात मां को समझाने में बेटे नितिन को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. फिर भी जो घर की जरूरत होगी, वह नितिन देगा ही. कविता ने सोचा कि बाकी जीवन तो बेटे के साथ ही बिताना है.  इसलिए उसने मकान के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए. अर्थात बेटे की खातिर मकान बेचने को तैयार हो गई.

मकान बेचकर नितिन ने कर्ज चुकाया तथा कुछ पैसे मिलाकर और ऑफिस से उधार लेकर 400 गज का आलीशान मकान खरीद कर शादी कर ली. एक-एक करके पहले मुकुल और डेढ़ साल बाद नेहा आई. कविता की खुशी का ठिकाना ही नहीं था. कि इतना प्यारा परिवार इतने प्यारे पोता-पोती. शिवाय मुकेश के उसके जीवन में किसी चीज की कमी नहीं थी.

कभी-कभी कविता मुकेश से सपनों में बातें करती, की शिवाय आपकी कमी के सभी कमियां आपके बेटे ने पूरी कर दी है. अगर आज तुम जिंदा होते तो आपका सीना गर्व से फूल जाता कि ऐसा बेटा सबको मिलता है क्या?

एक दिन, बहु दिव्या कार में कविता और दोनों बच्चों को लेकर मार्केट जा रही थी. सामने से आई हुई कार ने ऐसी टक्कर मारी की कार एक और दब गई. किंतु कविता ने खुद चोट खाकर बच्चों को खरोच तक नहीं आने दी. कविता के एक हाथ और घुटने में जबरदस्त चोट आई.

5 साल में दिव्या और कविता में कभी कोई झड़प नहीं हुई. कविता हमेशा अपनी गलती मानकर घर में शांति रखने की कोशिश में लगी रहती. कुछ दिनों से कविता के हाथ-पांव में अकड़न सि होने लगी थी. इस कारण दिव्या को सुबह बच्चों को समय से तैयार करके भेजना पड़ता था. और खाना भी खुद ही बनाना पड़ता था. बात-बात में खाना बनाने वाली रखने के लिए कहना और चिल्लाना आम बात हो गई थी. कविता भी दूध डबल रोटी खाकर गुजारा कर लेती और बच्चे भी कहने लगे की दादी खाना गर्म करके नहीं खिलाती है.

एक दिन दिव्या को कहते सुना की मम्मी जी अब हम पर भोझं बन गई हैं. कहां तक अस्पतालों और डॉक्टर के चक्कर काटे? हजारों रुपए पानी की तरह बहा दिए, पर यह तो उठने का नाम ही नहीं ले रही है. कविता को सुनकर एकदम धक्का लगा. ऐसे लगा जैसे बम गिर गया हो. कविता ने नहाते हुए देखा कि उसकी उंगलियों में सफेद दाग है और कुछ हाथों पर भी हैं. कविता ने अपने को समझाया की दवाइयां खाने से ऐसा हुआ है और दाग शरीर पर फैलने लग गए.

नितिन ने डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि उसे कुष्ठ रोग है. सारा परिवार हिल गया. नितिन तो डॉक्टर के सामने ही चिल्ला कर बोल पड़ा-मां कब से छिपा रखा है यह गंदा रोग, कहानी बच्चों को तो नहीं लगा दिया ?

कविता हकबकाकर नितिन का मुंह देखने लगी. डॉक्टर तेजी से बोला-आप पढ़े-लिखे होकर भी या नहीं जानते कि यह रोग छूत का नहीं होता है. अपनी मां से इस तरह बात ना करें. उन्हें सहारा दें. रोग छूत का हो या न हो बच्चों को कविता से दूर रखना रखा जाने लगा और उनका कमरा, कपड़े सब अलग कर दिए गए. उनके बिस्तर और सामान, स्टोर रूम में रख दिया गया. और एक नौकर उसी दिन रख लिया गया.

यह सब देखकर कविता के तो पैरों तले जमीन खिसक गई. जिस बेटे पर उन्हें इतना नाज था, उसका यह रूप देखकर वह पागल सी हो गई. सारी रात जाकर काटकर, अगले दिन बेटी प्रियंका को बुलाया गया. प्रियंका ने जिस स्थिति में मां को देखा. बुरा तो बहुत लगा, दूर से खड़ी होकर बोलने लगी-मां अब मैं भी क्या करूं, मेरे ससुराल वालों को अगर इस रोग के बारे में पता चलेगा तो वह मुझे ही घर से निकाल देंगे. कहां ले जाऊं तुम्हें. इस पर मां बोली ठीक है बेटी तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. तुम्हें बताना था बता दिया. इसी दिन के लिए तो ईश्वर से बेटे को मांगते हैं. वह है न मेरा ध्यान रखने के लिए. प्रियंका चली गई. दाग धीरे-धीरे फैलते हुए मुंह पर भी आ गए. कविता शीशे में मुंह छुपा कर देखते, तो बच्चे कभी-कभी उससे लिपट जाते. बच्चों को लिपटा हुआ देखकर नितिन और दिव्या एकदम गुस्से से भर जाते और सोचते कि इसका क्या उपाय निकाला जाए.

एक दिन सुबह-सुबह दिव्या मां के लिए गरम-गरम हलवा और चाय ले आई और बोली यह खा-पी लो और जल्दी से नहा धोकर तैयार हो जाओ, आज बाहर जाना है. यह सुनकर मां खुशी से पागल हो गई, कि आज बाहर ले जाने का इनका मन काफी दिनों बाद हुआ है. वह झट-पट तैयार होकर कार में बैठ गई. मां के पूछने पर नितिन और दिव्या ने बताया कि वह बड़े दिनों से हरिद्वार के लिए कह रही थी. तो आज हमने सोचा कि क्यों न उनकी यह इच्छा पूरी कर दी जाए. यह सुनकर कविता खुशी से पागल हो उठी और वह सोचने लगी की ‘चलो बच्चों को मेरी याद तो आ गई’और उसे लगा की गंगा स्नान के बाद उसे उसका कमरा और बच्चे भी लौटा दिए जाएंगे.

श्याम ढल चुकी थी, कार एक आश्रम के पास आकर रुकी. नितिन चुपचाप सामान उतारता रहा. नितिन ने दरवाजा खटखटाया बाहर एक बूढी औरत आई. नितिन ने कहा- यही है, इन्हें ले जाइए. बूढी औरत बोली-धन्य हो बेटा. इस अनाथ औरत को यहां नहीं लाते तो पता नहीं यह कहां-कहां भटकती रहती बेचारी. भगवान तुम्हारा भला करें. कितनी अच्छी मां के संतान हो तुम. इस बेचारी का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं है. यह बात सुनकर कविता सकबका गई. कभी वह नितिन को देखती तो कभी उस औरत को. वह बूढी औरत कविता को अपनी ओर खींच रही थी. नितिन और दिव्या तेजी से कार में जाकर बैठ गए. कविता के पास उसका सामान पड़ा था जिसमें एक टूटी अटैची, एक फटी पोटली के रूप में उसके पति तथा बच्चों द्वारा कमाई गई कमाई.

वह नितिन और दिव्या की तरफ देखना भी नहीं चाहती थी. की उनकी आंखों की शर्म उसके पैर न मोड़ ले. जहां उसके लाडले बेटे और बहू ने उसको पहुंचा दिया था, वहां से वह वापस भी नहीं जाना चाहती थी. वह बूढी औरत कविता के कानों में कुछ बोल रही थी, जो कविता को न तो समझ में आ रहा था और न ही वह समझना चाहती थी. कुछ ही देर में उनकी कार उनकी आंखों से ओझल हो गई.

यह भाग्य की विडंबना है कि इसके आगे सभी को नतमस्तक होना ही पड़ता है.

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